Monday, May 7, 2018

सीख-हास्य कविता

सीख-हास्य कविता

कई बरस के बाद
जिंदगी में दिन ऐसा आया था
जब प्यार मोहब्बत की गलियों में
खुद को बेबस पाया था
लात घूंसों की ऐसी
घनघोर घनी बरसात हुई थी
चौराहे पर उस जालिम से
जब पहली बार बात हुई थी
खड़ा था इत्मिनान से
बस के इंतजार में
इतने में इक कन्या पहुंची
रूप के खुमार में
उस नाज़नीं पर आकर
नजर टिक गई थी
एक पल के लिए जैसे
जिंदगी रुक गई थी
सोचा कि आज मैं भी
तकदीर आजमा लूँ
उसको जाकर दिल का
सारा हाल बता दूं
तुम दीपक मैं बाती
हम दोनों जनम के साथी
सुनकर सारी बात वो
थोड़ा सा शरमाई थी
रूप माधुरी जैसे
यौवन के मद में मुस्काई थी
कितने सारे फूल खिल उठे
सपनों के बृंदावन में
दोनों भीग रहे हो जैसे
अरमानों के सावन में।
सहसा एक पल में
मंजर बदल गया
पर्दे समेत पूरा
दिवा स्वप्न जल गया
ये जिंदगी की कौन सी
घड़ी से मिल गया
थप्पड़ खा के उसका
मै पूरा हिल गया
वो वीरांगना लक्ष्मीबाई की
भतीजी लग रही थी
थप्पड़ जैसे सत्य नारायण का
प्रसाद दे रही थी
मैं कम नही हूँ किंतु
वो जानती नही थी
क्रोध के दिये को
पहचानती नही थी
जब क्रोध के आवेग ने
पागल कर दिया
तो मैंने भी एक जोरदार
थप्पड़ जड़ दिया
बस उस वक़्त ठहर गई
मुझपर सबकी निगाहें
बच्चे हो बूढ़े हो
या फिर हों बिन ब्याहे
हर कोई जैसे
उसका संबंधी बन गया
जिससे जितना बन पड़ा
उतना धर गया।
उसके बाद क्या हुआ
कुछ पता नही चला
होश आया तो
एक डॉक्टर मुझसे मिला
बोला बड़ी मुश्किल से
बचा के समेटा है
अभी खबर नही तुम्हे
क्या क्या टूटा है।
जरा एक बार तबियत से
निहार लो
अभी समय है अपनी
नीयत सुधार लो
मैं बोला एकदम
सच्ची बात सुनाता हूँ
आज से अभी से
यह कसम खाता हूं
“कभी किसी अजनबी की तरफ
जाऊंगा नही
दिल लाख कहे मगर
दिल लगाऊंगा नही
जिनकी किस्मत में केवल
पत्थर मारना ही लिखा है
उनकी गली में खुद को
आजमाउंगा नही।।”
देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

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