Tuesday, January 8, 2019

अंध विश्वास

यूँ तो उन दिनों
आज वाले ग़म नही थे
फिर भी बहाने बाजी में
हम किसी से कम नही थे
जब भी स्कूल जाने का मन
नही होता था
पेट मे बड़े जोर का दर्द होता था
जिसे देख माँ घबरा जाती
और मैं स्कूल ना जाऊं इसलिए
बाबू जी से टकरा जाती
मैं अपनी सफलता पर
बहुत इतराता
दिन भर अपनी टोली
संग उत्सव मनाता
बाबू जी मेरी चाल
समझ तो जाते
पर मां के आगे
कुछ कर नही पाते।

एक बार की बात
कई बरस के बाद
हमारे गांव में
बाइस्कोप आया
जिसे देखने को
बच्चे बूढ़े
सबका मन ललचाया
पर बाइस्कोप देखने के समय
स्कूल की कक्षाएं चलती
जिसके कारण हम बच्चों की
दाल बिल्कुल नही गलती
पर मुझे भी बहानेबाजी के
नए प्रतिमान गढ़ना था
इस बार पेट दर्द के बजाय
मिर्गी का दौरा पड़ना था।
पर नाटक उम्मीद से ज्यादा
नाटकीय हो गया
मैं घुमड़ कर गिरा तो
चौखट से टकराया और
सच का बेहोश हो गया
माँ बाबू जी बहुत घबराए
गांव के लोग सब दौड़कर आये
कल्लू, रग्घू,बरखा, बबली,
नीलम,गौतम और बेला
घर के बाहर मेरे लग गया
अच्छा खासा मेला
किसी ने पानी के छीटें मारे
कोई बड़ी जोर से चिल्लाया
किसी ने पंखे से हवा दी
तो किसी ने पकड़ के हिलाया
अपना अपना अनुभव गाता
हर कोई नई जुगत लगाता
अश्रुधार में माँ  डूबी थी
बाबू जी का जी अकुलाता
व्यर्थ हुए जब सारे करतब
थमा कोलाहल प्रात हुई तब
चेतनता मुखरित हो आयी
मै जागा और ली अंगड़ाई।

फिर याद आया बाइस्कोप
अभिनेता का अभिनय खूब
आंख मूंदकर चिल्लाऊं
फिर एक दम से चुप हो जाऊं
सिर के बाल पकड़कर नोचूँ
पैर पटक कर धूल उड़ाऊँ
मैं अपने ही भरम में था
अभिनय मेरा चरम पे था
सहसा स्वर कानों में गूंजा
मुखिया जी का शब्द समूचा
सारा खेल बिगाड़ गया
अच्छा खासा जीत रहा था
कि एक दम से हार गया
सब लोगों का मन टटोल
मुखिया जी दिए मुँह खोल
जो यह बालक घबराया है
प्रेतों का इस पर साया है
ओझा बाबा के पास चलो
वरना पागल हो जाएगा
प्रेतों का तांडव दूर करो
बालक घायल हो जायेगा।
सबने हाँ में हाँ मिलाई
और फिर मेरी शामत आई।

भस्म रमाये औघड़ बाबा
खुद भूतों का लगता दादा
मेरी आँखों मे आंखे डाल
मंत्र पढ़े और करे सवाल
क्यों इसको तड़पाया है
बोल कहाँ से आया है
जाता है कि चप्पल से पीटू
या धरती पर रगड़ घसीटू
आंख खुली की खुली रह गई
भय से मेरी घिग्घी बंध गई
अपनी ताकत आजमाता है
तू मुझको आंख दिखाता है
बाबा ने चप्पल से पीटा
फिर धरती पर रगड़ घसीटा
आग जला कर भस्म उड़ाता
धुँआ उड़ा कर प्रेत भगाता
ठंडे पानी के छींटे मार
धोबी सा मुझे दिया पछाड़
बड़े दर्द से मैं चिल्लाया
मां की ओर उछल कर आया
फूट फूट कर रोया खूब
भाड़ में जाये बाइस्कोप
इक पल का न समय गंवाना
माँ मुझको स्कूल है जाना
मुदित हुई मां मुस्काई
आँचल में फिर मुझे छिपाई
बोली धन्यवाद मुखिया को
औघड़ बाबा को सुखिया को
भूत प्रेत को मात दिया
सबने दुख में साथ दिया।

कैसा भूत और कैसा प्रेत
सोच रहा मै मन ही मन मे
प्रगाढ़ हुआ मेरे नाटक से
अंध विश्वास वहां जन जन में।
सब मेरे ही कारण था
मैं प्रत्यक्ष उदाहरण था
इसी भांति अंध विश्वास फैलता
भूत प्रेत स्मृति में पलता।

Tuesday, August 21, 2018

प्रेम दिवस

इज़हार-ए- मोहब्बत का होना
उस दिन शायद मुमकिन था
वैलेंटाइन डे अर्थात
प्रेम दिवस का दिन था
कई वर्षों की मेहनत का फल
एक कन्या मित्र हमारी थी
जैसे सावन को बादल
वैसे वो हमको प्यारी थी
आज सुना दूं उसको जाकर
अपने दिल की हर धड़कन
खामोशी में चुपके से
बोला था ये पागल मन
मन ही मन अरमानों की
मनभावन मुस्कान लिए
पहुँचे प्रेम पार्क में हम
पल्लव पुष्प प्रतान लिए
सरपत की सर में सर सर
सरकी समीर की सरिता में
कई प्रेमी युगल लीन थे
अपने प्रेम ग्रंथ की कविता में
कुछ बांट रहे थे ग़म अपने
कुछ खुशियों के संग आये थे
कुछ मेरे जैसे भी थे जो
इंतजार में वक़्त बिताए थे
कहीं मनाना कहीं रूठना
कहीं संवरना कहीं टूटना
हर रूप में प्रेम छिपा था
भले कोई प्रियतम से पिटा था
इंतजार की राह में
मैं भटक रहा था इधर उधर
इतने में पहुंची इठलाती
इतराती वो सज धज कर
प्रेम सुधा अतिरति मनोहर
नव बसंत की नव आशा
मुझ पर मेरा अधिकार नही
जागी कैसी ये अभिलाषा
हे रूप नगर की शहजादी
क्यों न कर लें हम तुम शादी
मैं प्रेम तुम्ही से करता हूँ
तुम्हे देख के आहें भरता हूँ
वर्षानुवर्ष व्यतीत हुए
पीड़ा के कण कण गीत हुए
कुछ याद रहे कुछ भूल गए
मायूस बगीचे फूल गए
आज प्रेम की इन घड़ियों में
हृदय स्वयं गुलदस्ता है
अति विनीत हो मधुमती
यह प्रणय निवेदन करता है।
सुनकर वह कुछ न बोली
चाहत आंखों में थी भोली
पलकों में हया नजर आयी
जब नजर मिली वह मुस्काई
झूम उठा दिल हर्षगान कर
शब्दों के शुचि सुमन दान कर
नाम मेरा लो अब कैसे भी
हाथ थाम लो अब जैसे भी
दिल खुद पर इतराया जब
हौले से हाथ बढ़ाया जब
एक कोलाहल उपवन में गूंजा
भागो मोहन, भागो राधा
भारत माँ की जय बोलकर
संस्कृति के रक्षक गण बनकर
कुछ लोगों ने धावा बोला
मंजर भय से थर थर डोला
प्रेमी युगल को ढूंढ ढूंढ कर
पीट रहे थे केश खींचकर
उन लोगों को नजर न आओ
प्रियतम जल्दी से छुप जाओ
साथ हमारा छूटे ना
बंधन जुड़कर टूटे ना
जैसे वह नींद से जाग गई
हाथ छुड़ा कर भाग गई
रुक जाओ राधा चिल्लाया
हाय अभागा मोहन
तांडव को अपनी ओर बुलाया
अब उपवन में मैं केवल था
और उनका पूरा दल था
बोले बालक मोहन प्यारे
आओ प्रेम का भूत उतारे
इलू इलू खूब करते हो
देखे कितना तुम मरते हो
एक ने अपनी पादुका निकाली
दूजे ने हवा में टोपी उछाली
तीसरा मुँह में पान दबाए
चौथा हाथों में कड़ा घुमाए
गर्दन फंसी देख घबराया
पर कोई हल समझ न आया
आंख मूंदकर खड़ा रहा
जड़ अद्भुत सा अड़ा रहा
फिर क्या बीती क्या बतलाऊ
आंख खुली तो अस्पताल के
बेड पर खुद को लेटा पाऊँ
विस्मय से आंखे थी चौंकी
सिरहाने राधा थी बैठी
बाबा गुस्से में बेकाबू
मां की आंखों में थे आंसू

यूँ छुप छुप कर मिलना क्या
प्रेम अगर है डरना क्या
हमको जो तू बतलाता
घर अपना उपवन हो जाता
तेरी ओर से मैं भी आती
तू क्या है उसको समझाती
तेरे प्रणय निवेदन के
हम सब साक्षी हो जाते
एक उत्सव सा होता घर में
जब तुम दोनों मिल जाते
मां खामोश हुई तो फिर
बाबा का नंबर आया
मैं शर्मिंदा था खुद पर
नजर नही मिला पाया
बोले तू किस आफत में पड़ा
अपनी हालत देख जरा
सहज प्रकृति से दूर गया
अपनी संस्कृति को भूल गया
अच्छा होता फ़ाग राग में
तू प्रेम के रंग मिलाता
फागुन की पावन बेला में
प्रीत की पावन प्रथा निभाता
फ़ाग प्रेम का ऋतु बसंत है
अद्भुत अतुलित मूलमंत्र है
प्रेम की कथा सुनाऊ तुझको
सच्ची राह दिखाऊँ तुझको
प्रेम सकल सर्वत्र व्याप्त है
हर प्राणी को स्वतः प्राप्त है
सुन बात हमारी बेचारे
हर दिवस प्रेम का है प्यारे
एक दिवस में बाँध इसे मत
लक्ष्य समझ कर साध इसे मत
यह तो जीवन की धारा है
इसमे बहता जग सारा है
पर तू यह सब समझ न पाया
पड़ा हुआ है पिटा पिटाया
सुनकर बातें बाबा की
अश्रु पलक से छूट गए
भ्रम के सारे बंधन मानो
क्षणभर में ही टूट गए
हृदय प्रेम से भर आया
अदभुत सौंदर्य उभर आया
नैनों ने बातें की निश्छल
राधा मोहन अविरल अविचल
प्रेम सफल साकार हुआ
बिन शब्दों के इज़हार हुआ।

    -देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Monday, May 7, 2018

सीख-हास्य कविता

सीख-हास्य कविता

कई बरस के बाद
जिंदगी में दिन ऐसा आया था
जब प्यार मोहब्बत की गलियों में
खुद को बेबस पाया था
लात घूंसों की ऐसी
घनघोर घनी बरसात हुई थी
चौराहे पर उस जालिम से
जब पहली बार बात हुई थी
खड़ा था इत्मिनान से
बस के इंतजार में
इतने में इक कन्या पहुंची
रूप के खुमार में
उस नाज़नीं पर आकर
नजर टिक गई थी
एक पल के लिए जैसे
जिंदगी रुक गई थी
सोचा कि आज मैं भी
तकदीर आजमा लूँ
उसको जाकर दिल का
सारा हाल बता दूं
तुम दीपक मैं बाती
हम दोनों जनम के साथी
सुनकर सारी बात वो
थोड़ा सा शरमाई थी
रूप माधुरी जैसे
यौवन के मद में मुस्काई थी
कितने सारे फूल खिल उठे
सपनों के बृंदावन में
दोनों भीग रहे हो जैसे
अरमानों के सावन में।
सहसा एक पल में
मंजर बदल गया
पर्दे समेत पूरा
दिवा स्वप्न जल गया
ये जिंदगी की कौन सी
घड़ी से मिल गया
थप्पड़ खा के उसका
मै पूरा हिल गया
वो वीरांगना लक्ष्मीबाई की
भतीजी लग रही थी
थप्पड़ जैसे सत्य नारायण का
प्रसाद दे रही थी
मैं कम नही हूँ किंतु
वो जानती नही थी
क्रोध के दिये को
पहचानती नही थी
जब क्रोध के आवेग ने
पागल कर दिया
तो मैंने भी एक जोरदार
थप्पड़ जड़ दिया
बस उस वक़्त ठहर गई
मुझपर सबकी निगाहें
बच्चे हो बूढ़े हो
या फिर हों बिन ब्याहे
हर कोई जैसे
उसका संबंधी बन गया
जिससे जितना बन पड़ा
उतना धर गया।
उसके बाद क्या हुआ
कुछ पता नही चला
होश आया तो
एक डॉक्टर मुझसे मिला
बोला बड़ी मुश्किल से
बचा के समेटा है
अभी खबर नही तुम्हे
क्या क्या टूटा है।
जरा एक बार तबियत से
निहार लो
अभी समय है अपनी
नीयत सुधार लो
मैं बोला एकदम
सच्ची बात सुनाता हूँ
आज से अभी से
यह कसम खाता हूं
“कभी किसी अजनबी की तरफ
जाऊंगा नही
दिल लाख कहे मगर
दिल लगाऊंगा नही
जिनकी किस्मत में केवल
पत्थर मारना ही लिखा है
उनकी गली में खुद को
आजमाउंगा नही।।”
देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

अंध विश्वास

यूँ तो उन दिनों आज वाले ग़म नही थे फिर भी बहाने बाजी में हम किसी से कम नही थे जब भी स्कूल जाने का मन नही होता था पेट मे बड़े जोर का दर्द...